बड़े दिनों की यारी थी अपनी,
फिर आशियानें अलग बना लिए|
यार सब अपने तो अब भी एक हैं,
मिलने के ठिकाने अलग बना लिए!
मैं राही|
पेड़ों पे खुदे नामों से,
संसार बना बैठा|
सराये के मुसाफिरों को यार,
हर बार बना बैठा|
शामों की महफ़िलों में ,
अब रेहता हूँ बेकरार|
के अपनी ज़िंदगी को उजाले का,
इंतेजार बना बैठा|
रोके नहीं रुकते पैर मेरे अब,
आगे दश्त या बागे बहार|
जब रास्ते को ही मैं अपना,
मज़ार बना बैठा|
किस काफिले का था?
क्या पता, कहाँ वो रुका?
अकेले चलना है खुद को,
तैयार बना बैठा|
छीनेगा भला क्या मुझसे,
दिखाकर कोई तलवार|
के अपनी हंसी को ही मैं,
हथियार बना बैठा|