बड़े दिनों की यारी थी अपनी,
फिर आशियानें अलग बना लिए|
यार सब अपने तो अब भी एक हैं,
मिलने के ठिकाने अलग बना लिए!
मैं राही|
पेड़ों पे खुदे नामों से,
संसार बना बैठा|
सराये के मुसाफिरों को यार,
हर बार बना बैठा|
शामों की महफ़िलों में ,
अब रेहता हूँ बेकरार|
के अपनी ज़िंदगी को उजाले का,
इंतेजार बना बैठा|
रोके नहीं रुकते पैर मेरे अब,
आगे दश्त या बागे बहार|
जब रास्ते को ही मैं अपना,
मज़ार बना बैठा|
किस काफिले का था?
क्या पता, कहाँ वो रुका?
अकेले चलना है खुद को,
तैयार बना बैठा|
छीनेगा भला क्या मुझसे,
दिखाकर कोई तलवार|
के अपनी हंसी को ही मैं,
हथियार बना बैठा|
वाह वाह... वाह वाह... एक बार और - वाह वाह!!!
ReplyDelete"यार सब अपने तो अब भी एक हैं", इस पंक्ति में 'एक' शब्द का प्रयोग समझ में नहीं आया... कृपया मेरी नासमझी को दूर करने का कष्ट करें।
और कविता के दूसरे छंद में 'ए' की मात्रा कुछ ज्यादा ही प्रयोग में आई है!!!
मित्र मेरे,वहाँ पर 'एक' का प्रयोग अंग्रेज़ी के 'same' के बराबर हुआ है|
ReplyDeleteदूसरे छंद में 'इंतज़ार' के बदले मैंने 'इंतेजार' चुना, मुझे लगा उससे लय बेहतर होता है|
यह कविता कुछ दिनों में एक साल पुरानी हो जाएगी। नए साल के आने से पहले कुछ और कविताएं प्रकाशित हो जाये! वैसे आप जिस माहौल में है, उसमें तो नई कविताओं की भी रचना हो सकती हैं... :)
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